GURU JASNATH JI MAHARAJ |
Guru Jasnath Ji Maharaj
Guru Jasnath Ji Maharaj (1482-1506) (गुरु जसनाथ जी महाराज), whose real name was Jasnath, was the founder of Jasnathi Sampradaya . He was from Jyani gotra of Jats from in village Katariyasar of Bikaner district of Rajasthan state at India. His father was Hamirji of jyani Jat clan and chieftain of Katariyasar. When the Rathor rulers in Bikaner increased the land taxes excessively, people became very disappointed. Jasnath Ji Maharaj appeared at this juncture to remove the problems faced by the people. He established this Sampradaya in samvat 1551 in Churu.The followers of Jasnathi Sampradaya are in large number, mainly Jats, in Sardarshahar,Nagaur, Panchala Sidha, Jodhpur, Barmer, Churu, Ganganagar, Bikaner and other places in Rajasthan and also many people from Haryana, Punjab and Madhya Pradesh believe in it.
Guru Jasnath Ji Maharaj's Temples
जसनाथी सम्प्रदाय
FIRE DANCE |
जसनाथी सम्प्रदाय एक हिन्दू सम्प्रदाय है जिसके संस्थापक श्री गुरु जसनाथ जी महराज (1482-1506) थे। जोधपुर, बीकानेर मंडलों में जसनाथ मतानुयायियों की बहुलता है। जसनाथ सम्प्रदाय के पाँच ठिकाने, बारह धाम, चौरासी बाड़ी और एक सौ आठ स्थापना हैं। इस सम्प्रदाय में रहने के लिए छत्तीस नियम पालने आवश्यक हैं। चौबीस वर्ष की आयु में जसनाथजी समाधिस्थ हुए थे। बीकानेर से सटे हुए कतरियासर गांव में आज भी इनकी समाधि विद्यमान है। बीकानेर से करीब 45 किलोमीटर दूर कतरियासर गाँव सिद्ध नाथ सम्प्रदाय के लोगों का मेला में लगता है।
इतिहासकारो की ऐसी मान्यता है कि जसनाथजी को कतरियासर गांव रूस्तमजी के कहने पर सिकन्दर लोदी ने भेंट किया। जसनाथ जी के एक शिष्य की समाधी "सिद्धो के पाँचला" नामक गाम्र में है|
जसनाथजी का आविर्भाव
आविर्भाव – सिद्धाचार्य भगवान श्री जसनाथजी का आविर्भाव संवत् 1539 के पावन पर्व कार्तिक शुक्ल एकादशी, शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था।
कतरियासर के जाट हमीर जी ज्याणी निस्संतान होने के कारण उनको समाज एवं परिवार में हेय-दृष्टि से देखा जाता था। एक दिन उनको स्वप्न में गुरु गोरखनाथ जी ने हमीर जी को दर्शन देकर ‘डाभला’ तालाब की ओर जाने का निर्देश दिया। हमीरजी वहाँ से चलकर जब ‘डाभला’ की सीमा के समीप पहुँचे तो उनका घोड़ा आगे ना बढ़ा। तब हमीरजी घोड़े की लगाम पकड़े पैदल ही आगे बढ़े, उन्हें तालाब के पूर्वी घाट पर जहाँ पहले जाळ का एक सघन वृक्ष था, के नीचे तेज पुंज, आभा मंडल से देदिप्यमान शिशु दिखाई दिया। वहाँ एक नाग एवं एक बाघ जसनाथजी शिशु की रक्षा कर रहे थे। हमीरजी द्वारा ईश-स्तुति के बाद नाग-बाघ दूर हो गए। हमीर जी उस शिशु को घर ले आए और उनका नाम ‘जसवंत’ रखा गया। इससे हमीरजी की पत्नी माँ रूपादे अत्यंत प्रसन्न हुई।
जसनाथजी का बाल्यकाल
बाल्यकाल – बालक जसवंत जिस समय, केवल एक वर्ष के थे तो वे खेलते हुए, आंगन में पड़ी अंगारों की बड़ी अंगीठी में बैठ गए। यह देखकर माता रूपादेजी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उन्होंने द्रुत-गति से दौड़कर बालक को अग्नि के दहकते अंगारों से बाहर निकाला। माता को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बालक के शरीर पर जलने का कोई निशान नहीं है।
बालक जसवंत जब दो वर्ष के थे तब वे खेलते-खेलते माता के पास आये और उनसे अनुरोध करने लगे कि ‘मुझे दूध दो, मुझे बड़ी जोरों को भूख लगी है।’ माता ने साधारणतया दूध के पात्र की ओर इंगित करते हुए कह दिया कि ‘वह पड़ा दूध, पी लो जितना जी चाहे।’ माता तो यह कहकर गृहकार्य में लग गई। बालक जसवंत ने लोटा उठाया और ‘कढ़ावणी’ में रखे ‘डेढ़-दो मण’ दूध को अपने उदर में समा लिया।
बालक जसवंत जब पांच वर्ष के हुए तो हमीरजी उन्हें शिक्षा के लिए एक विद्वान ब्राह्मण के पास ले गए। बालक की अल्पावस्था को देखकर पंडितजी ने कहा कि ‘बालक अभी छोटा है, थोड़ा और बड़ा होने दीजिए, बाद में विद्यारंभ करवाएंगे।’ पंडित द्वारा छोटा बताने पर बालक जसवंत ने पच्चीस वर्ष के युवक का रूप धारण कर लिया और पंडित के प्रति सम्मान जताते हुए निवेदन किया कि ‘आप मुझे जितना छोटा समझ रहे हैं, मैं उतना छोटा नहीं हूँ। विद्यारंभ के शुभ अवसर को न टालिए।’ पंडित ने बालक को पढ़ाना आरंभ कर दिया। बालक जसवंत ने अल्पकाल में ही समस्त वेद-शास्त्रों का अध्ययन कर लिया।
सती काळलदे
सती दादी काळलदे – सती काळलदे का प्रादुर्भाव हरियाणा के ‘चूड़ीखेड़ा’ (जिला – हिसार) में हुआ। इनका प्रादुर्भाव विक्रम संवत् 1542 आश्विन शुक्ल चतुर्थी को हुआ। इनके पिता का नाम नेपालजी बेनीवाल था। नेपालजी बेनीवाल के घर सती काळलदे के प्राकट्य से छह माह पूर्व एक कन्या का जन्म हुआ था। वह कन्या बड़ी ही सुंदर थी, अतः उसका नाम ‘प्यारलदे’ रखा गया। एक दिन प्रातः माता ने अपनी छह माह की कन्या ‘प्यारलदे’ को पालने में लेटा दिया और स्वयं अपने गृहकार्य में लग गई। सूर्योदय के समय जब देखा गया तो उस गौरांग कन्या प्यारलदे के साथ तदनुरूप ही एक और कन्या पालने में लेटी हुई है। माता-पिता को जब पहचानने में कठिनाई हुई, तब उनमें से एक कन्या ने ‘श्याम-वर्ण’ धारण कर लिया जो संभवतः प्रकट होने वाली कन्या थी। ‘श्यामवर्ण’ कन्या ही काळलदे के नाम से संबोधित होने लगी।
नेपालजी बेनीवाल के घर के सामने जो ‘गवाड़’ (खुला मैदान) था उसमें एक बहुत बड़ा प्रस्तर खंड रखा हुआ था। उसमें ‘धान’ (अन्न) कूटने के लिए कई ऊखल खुदे हुए थे। ऊखलों में ‘धान’ कूटने की बारी को लेकर स्त्रियों में प्रायः विवाद हो जाया करता था। अतः सती काळलदे ने एक दिन उस झगड़े की जड़ ‘प्रस्तर-खंड’ को, उठाकर अपने घर में लाकर डाल दिया। ‘प्रस्तर-खंड’ इतना बड़ा और वजनदार था कि उसे बीस आदमी भी मिलकर उठाने में समर्थ न थे। इसी तरह एक बार नेपालजी के परिवार में विवाह था, किन्तु काळलदे वस्त्राभूषण धारण करने एवं साज-श्रृंगार में विलम्ब कर रही थी। नेपालजी शीघ्रता का कहने के लिए जब उनके कक्ष में गए तब काळलदे के पलंग पर साज-श्रृंगारयुक्त सिंहनी लेटी हुई थी। नेपालजी दबे पाँव कक्ष से बाहर निकले और उस दिन से काळलदे को हिंगलाज माता का अवतार मानने लगे।
‘पार्वती प्याती सती, काळल सो हिंगलाज’
नेपालजी को यह भी चिंता हुई कि इसके ‘जोड़’ का वर कहाँ मिलेगा। तब थली-प्रदेश से गए किसी ब्राह्मण ने उन्हें बालक कतरियासर के हमीरजी ज्याणी के पुत्र जसवंत के बारे में बताया और कहा ‘आपकी पुत्री के लिए वही उपयुक्त वर है। आप स्वयं वहाँ जाकर इसकी जाँच-पड़ताल कर सकते हैं।’ नेपालजी बेनीवाल जिस समय काळलदे के सगाई-सम्बन्ध हेतु कतरियासर आए थे उस समय श्री जसनाथजी की आयु दस वर्ष थी। नेपालजी हमीरजी के घर पहुँचने से पहले गाँव के कुएं पर थोड़ा सुस्ताने के लिए ठहर गए थे। उस समय कतरियासर गाँव के टाडे (कुएं के पास का खुला मैदान) में बीकानेर राज्य के दो हाथी जो स्वच्छंद रूप से जंगलों में चरने के लिए छोड़े हुए थे, कतरियासर के कुएं पर पानी पीने को आ निकले। पानी पीने के पश्चात् वे आपस में लड़ पड़े। उन्हें छुड़ाने का साहस किसी का भी नहीं हो रहा था। उस समय बालक जसवंत ने उन हाथियों के कान पकड़ कर पृथक्-पृथक् कर दिया। यह घटना स्वयं नेपालजी ने जब अपनी आँखों से देखि तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्राह्मण ने जसनाथजी का जैसा परिचय दिया था, वह अक्षरशः सत्य था। नेपालजी हमीरजी के घर आए और अपनी कन्या का जसनाथजी के साथ सगाई-सम्बन्ध का प्रस्ताव रखा। हमीरजी ने उनके प्रस्ताव पर सहमती प्रकट कर दी।
जसनाथजी का गुरु गोरखनाथजी से साक्षात्कार
गुरु गोरखनाथजी से साक्षात्कार एवं योग-दीक्षा – 12 वर्ष की आयु में जसनाथजी अपनी खोई हुई ‘सांढे’ (ऊंटनियां) खोजने गए। भागथळी नामक स्थान पर उन्हें गुरु गोरखनाथजी ने दर्शन दिए, उनके कान में गुरु मंत्र फूंका, सिर पर वरद-हस्त रखा तथा ‘सत्य-शब्द’ का आधान किया। अब वे जसवंत से जसनाथ हो गए। जसनाथजी ने उत्तरीय में बंधा ‘चूरमा’ जो माता रूपादे ने रास्ते के लिए बाँधा था, गुरु को समर्पित किया। गुरु ने कमण्डलु का पानी जसनाथ को पिलाया। गोरखनाथजी ने जब जसनाथजी के कान में नाथ-योगियों की भांति कुंडल पहनाने के लिए ‘त्रिधारी करद’ चलाया तो रक्त न निकलकर दुग्ध की धारा स्फुटित हुई। गोरखनाथजी ने कहा ‘बालक तुम तो जन्मजात ‘सिद्ध’ पुरुष हो।’ बालक जसनाथ ने अपने गुरु से निवेदन किया कि ‘आप मेरे गाँव कतरियासर पधारें।’ गुरु ने यह प्रार्थना स्वीकार की, गुरु-चेले भागथळी से कतरियासर की तरफ रवाना हुए। सामने से धूप आने के कारण जसनाथजी आगे-आगे एक जाळ की टहनी लेकर चल रहे थे। जब कतरियासर थोड़ी दूर रह गया तो वर्तमान में जहाँ ‘गोरखमालिया’ स्थित है, वहाँ पहुँचने पर शिष्य ने जब पीछे मुड़कर देखा तब गुरु दृष्टिगोचर न हुए, वहाँ उनके चरण-चिह्न ही शेष थे। ऐसा माना जाता है कि यह मिलन भौतिक न था। अन्यथा पल-क्षण में भौतिक देह को कहाँ छुपाया जा सकता है। ऐसा मानने का अन्य कारण यह भी है कि गोरखनाथजी का समय विद्वानों द्वारा दसवीं शताब्दी का अंतिम चरण एवं ग्यारहवीं शताब्दी का प्रथम चरण निर्धारित किया गया है, जबकि यह मिलन संवत् 1551 में हुआ था। उस समय जसनाथजी के हाथ में जो जाळ (पीलू) की टहनी थी, उसे वहाँ रोप दिया। टहनी कुछ ही समय में सजीव होकर हरी हो गई अर्थात जड़ें पकड़ ली। इसी स्थान पर जसनाथजी ने तपस्या शुरू की एवं सिद्ध धर्म की स्थापना की। गोरखनाथजी से साक्षात्कार एवं नवीन धर्म स्थापना की यह घटना संवत् 1551 आश्विन शुक्ल सप्तमी की है।
खबर पड़त हमीर जी सुआया, जसवंत जोग री सविध पाया
कौण जोगी तुमको भरमाया, घर सब त्याग बनवास सिधाया
जसनाथजी हमीरजी के एकमात्र पुत्र थे, उनका सगाई-सम्बन्ध भी किया जा चुका था। हमीरजी के बार-बार वापस मनाने पर जसनाथजी ने कहा –
पाग न बांधां, पलंग न पौढां, इण खोटे संसारू
अंजन छोड़ निरंजन ध्यावां, हुय ध्यावां हुसियारु
पिता के विषाद को शांत करने के लिए जसनाथजी ने उन्हें वरदान देते हुए कहा कि ‘आपके घर एक पुत्र-रत्न जन्म लेगा, वही आपकी सांसारिक कामनाओं की पूर्ती करेगा। मुझ से आप किसी प्रकार की सांसारिक आशा न करें, मैं भोगों का भोक्ता नहीं हो सकता।’
उन्होंने अपने पोषक पिता को दुसरे पुत्र होने का वरदान दे आश्वस्त किया। जसनाथजी के वरदान स्वरूप हमीरजी के घर जागोजी का जन्म हुआ। जसनाथजी के उत्तराधिकारी के रूप में जागोजी कतरियासर के महंत-पद पर अभिषिक्त हुए।
जसनाथजी और हरोजी
जसनाथजी की चरण-सेवा में हरोजी का आगमन – हरोजी का गाँव बम्बलू, कतरियासर से 4 कोस दक्षिण में स्थित है। हरोजी के पिता ऊदोजी कूकणा थे। हरोजी के जिम्मे अपना ‘रेवड़’ चराना था। वे अपना ‘रेवड़’ प्रायः अपने ग्राम से उत्तर दिशा की ओर ले जाया करते थे। यदा-कदा ये ‘गोरखमालिया’ पर आकर बालयोगी जसनाथजी को देखा करते थे। धीरे-धीरे हरोजी का आकर्षण आध्यात्म में होने लगा। वे अपने ‘रेवड़’ को प्रायः सूना छोड़कर जसनाथजी के पास बैठने लगे। ऐसे सुखद वातावरण में भी हरोजी के मुख-मंडल पर चिंता की एक मलीन रेखा खिंची रहती थी। यद्यपि भगवान उनकी चिंता का कारण जानते थे, फिर भी एक दिन हरोजी से इस अकुलाहट का कारण पूछ ही लिया कि ‘वह इस सुख के साथ किस दुःख का अनुभव करता है।’ गुरुदेव के पूछने पर हरोजी ने कहा कि ‘मुझे अपने रेवड़ को, बिना किसी रखवाली के अकेला छोड़ने की बराबर चिंता बनी रहती है। रेवड़ अकेला रहने से भेड़ियादि हिंसक जानवरों का भी रहता है, साथ ही रेवड़ मनचाही दिशा में फैलकर, इधर-उधर लम्बी दूरी में बिखर जाता है जिसे बाद में एकत्र करने में काफी समय और श्रम लगाना पड़ता है।’ सिद्धाचार्य ने हरोजी से कहा कि ‘तुम रेवड़ को जितनी दूरी में चराना चाहते हो, उतनी परिधि में गुरु का (मेरा) नाम लेकर ‘कार’ (सीमा रेखा) लगा दिया करो, फिर उस ‘कार’ से न तो रेवड़ बाहर जा सकेगा और न ही कोई हिंसक जानवर उस ‘कार’ परिधि में प्रवेश कर किसी प्रकार की हानि पहुँचा सकेगा।’
हरोजी प्रतिदिन रेवड़ के चारों और ‘कार’ लगाकर निश्चिन्त हो जाते और स्वयं भगवान की सेवा में दत्तचित्त होकर लगे रहते। लेकिन एक दिन हरोजी ‘रेवड़’ के कार लगाना भूल गए। कुछ समय बाद यह बात ध्यान आने पर हरोजी शीघ्रता से रेवड़ का पीछा किया लेकिन रेवड़ बम्बलू गाँव के कुएं पर पहुँच चुका था। ऊदोजी अपने पुत्र की लापरवाही पर क्रोध से तिलमिला उठे। ऊदोजी को पहले ही पता था कि हरोजी रेवड़ को सूना छोड़ घंटो हमीर जी ज्याणी के वनवासी लड़के के पास बैठे रहते हैं। हरोजी ज्यों ही समीप आए, ऊदोजी ने ‘धूड़ है थारे माथे में’ कहते हुए दो ‘धोबा’ रेत डाली और ‘लाव की पोछड़ी’ का हरोजी की पीठ पर प्रहार किया। उसके बाद भी हरोजी गोरखमालिया जाते रहे, जिससे ऊदोजी कुछ लोगों के साथ लेकर गोरखमालिया गए। ‘ढालू’ जगह में होने के कारण वे स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। अतः जसनाथजी ने पूछा – कौन है? ऊदोजी ने कहा–‘मैं हूँ ऊदा।’ जसनाथजी ने कहा–‘ऊदा, हो जा सीधा।’
भगवान के ऐसा कहने के साथ ही ऊदोजी की कमर जो बुढ़ापे के कारण झुक गई थी, सीधी हो गई। जसनाथजी ने अपने सिर के केश दिखाए जिनमें दो धोबा धूड़ थी तथा पीठ दिखाई जिस पर चोट के निशान थे। इसके बाद ऊदोजी ने हरमल को जसनाथजी की सेवा में सौंप दिया तथा स्वयं भी धर्म-धारणा, ‘धागा’ और ‘चलू’ ग्रहण कर सिद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया।
जसनाथजी के साक्षात्कार
एक बार लालमदेसर गाँव के पंडित जियोजी महाराज सगाई का नारियल लेकर कालू जा रहे थे। कतरियासर पहुँचने पर उन्होंने जसनाथ जी के बारे में सुना। दर्शनार्थ वे गोरखमालिया गए तो वह निश्चित नहीं कर पाए की जसनाथ जी के अभिवादन के लिए किन शब्दों का प्रयोग करे। उनके मुख से सहसा “आदेश” शब्द निकला। प्रत्युत्तर में जसनाथ जी ने उन्हें दो बार “आदेश” कहा। जसनाथी समाज में अभिवादन की यही परंपरा चलती है। कुछ देर ज्ञान चर्चा के बाद जियोजी ने जसनाथ जी महाराज को अपनी यात्रा के प्रयोजन के बारे में बताया। जसनाथ जी ने जियोजी से पूछा कि क्या उन्होंने सभी दोषों का ध्यान कर लिया था। जियो जी सोच में पड़ गए, हालाँकि वे ज्योतिष के अच्छे जानकार थे। जियोजी वहां से जब कालू गए तो कालू से थोड़ी दूर पहले गडरिए मिले जिनसे जब जियोजी ने अपने जजमान के होने वाले समधी और दामाद के बारे में पूछा तो पता चला कि जिस युवक का नारियल वो लाए हैं उसकी मृत्यु पहले दिन ही हुई है। इतना सुनते ही जियोजी वहीं से उलटे पाँव लौट आए और जसनाथ जी के पाँव पकड़ उनके शिष्य बन गए।
लालमदेसर के चौधरी रामू सारण के बेटे के शरीर पर राक्षस ने कब्ज़ा कर रखा था। कई स्याणो-भोपों के पास जाने पर भी आराम नहीं था। जियोजी महाराज ने उन्हें जसनाथ जी के पास जाने की सलाह दी। चौधरी ने अपने साथियों को साथ लेकर बैलगाड़ी पर जंजीरों से बाँध कर अपने बेटे को कतरियासर ले जाने लगे। रास्ते में बीकानेर दुर्ग के पास उन्हें बीकानेर के राजा नरोजी (बीकाजी के बेटे) के छोटे भाई अड़सी जी (अरिसिंह) मिले। उन्होंने उस राक्षस पीड़ित युवक को देख कर कहा कि हमारे भाई साहब घड़सी जी घोड़ा घुमाने गए हैं। उनका इंतजार कर लो, वो चिमठी से मसल कर सिक्के की पत्ती बना देते हैं। वो इसका राक्षस चुटकियों में निकाल देंगे। रामू सारण ने सोचा चलो अपना काम निकलता है तो इंतजार में क्या हर्ज है। घड़सी जी ने आते ही कहा “बीकानेरी बांका नर कहिए, म्हाँ नजरां भूत नहीं रहिए।” और अपने सोने के ताजने (चाबुक) को उस युवक पर दे मारा। उस मरणासन्न दिख रहे युवक ने ताजने को पकड़ लिया। घडसी जी ने अपनी सारी ताकत लगा दी, यहाँ तक कि घोड़ा और गाड़ी आपस में सट गए लेकिन ताजना नहीं छूटा। अंत में थक हार कर घड़सी जी ने रामू सारण से कहा कि अगर तेरा यह बेटा सही हो जाए तो वापस आते वक़्त यह ताजना लौटा देना। रामू सारण जब कतरियासर पहुंचे तो ओरण की सीमा पर बैलों के पैर जाम हो गए। जसनाथजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह देख हरोजी को भभूत के साथ सामने भेजा। जसनाथजी ने राक्षस को युवक का शरीर छोड़ने का आदेश दिया जिसके बाद युवक का शरीर निस्तेज हो गया, जिस पर अपने हाथ के स्पर्श से जसनाथजी ने शक्ति लौटा दी। राक्षस को उन्होंने बताया कि तुम्हारा उद्धार मेरी परम्परा के ही देवोजी द्वारा किया जाएगा। रामू सारण को ही जसनाथ जी ने सर्वप्रथम 36 धर्म नियम बताए। वहां से वापस लौटते वक़्त रामू सारण ने घड़सी जी को उनका ताजना लौटाया।
इससे अड़सी जी, घड़सी जी के मन में जसनाथ जी के प्रति कौतुहल पैदा हुआ। वे जसनाथ जी के दर्शनार्थ रवाना होने लगे। भेंट में देने के लिए एक शाल एवं परीक्षा के लिए एक थैली में आधे असली और आधे नकली सिक्के ले लिए। उनके सौतेले भाई लूणकरण की माँ ने लूणकरण को भी एक नारियल दे कर भाइयों के साथ जसनाथजी के पास भेजा। अड़सी घड़सी जी के घोड़े ओरण पर रुक जाने के कारण वे आगे पैदल आए। इस बात से घड़सी जी खिन्न हो गए जबकि लूणकरण के मन में श्रद्धा भाव ही था। घड़सी जी ने शाल जसनाथजी को दिया तो जसनाथ जी ने उसे धूने में ओट दिया। ये देख और भी तिलमिलाए घड़सी जी ने जसनाथ जी को शर्मिंदा करने के लिए कहा “महाराज हम इस शाल को जिस दुकानदार से लिया उसे दिखाना भूल गए आप हमें यह एक दिन के लिए दें तो वापस ला देंगे। अन्यथा वह इसकी ज्यादा कीमत लगा देगा। जसनाथ जी ने धूने से वैसे ही कई शाल निकाल दिए और कहा जो तुम्हारा है, वह ले लो। घड़सी जी इतने पर भी नहीं माने और वो सिक्कों की थैली जसनाथजी को भेंट की। लूणकरण जी ने श्रद्धापूर्वक नारियल भेंट किया जिसे जसनाथजी ने स्वीकार किया। सिक्कों की थैली जसनाथजी ने हरोजी की तरफ बढ़ाते हुए कहा कि
“हरा रे हरा आधा खोटा आधा खरा, खोट खोटेड़ा पड़सी, बीकानेर रो राज लूणकरण करसी”
जिससे बौखला कर घड़सी जी ने कहा “लूणकरण करसी धूड़ अर भाटो” जिस पर जसनाथजी ने कहा कि तुमने आशीर्वाद स्वरुप धूड़ में जमीन और भाटे में गढ़ (बीकाजी की टेकरी) दे दिया है। इसके बाद घड़सी वहां नहीं रुके लेकिन बीकानेर आने पर वे पागल हो गए। घड़सी जी की माता के कहने पर जसनाथ जी ने उन्हें अपने सम्मुख अर्थात कतरियासर से पूर्व (अड़सीसर-घड़सीसर) में बसने को कहा। नरोजी की मृत्यु के बाद जसनाथ जी के आशीर्वाद स्वरूप लूणकरण जी बीकानेर के राजा बने।
24 वर्ष की आयु में जसनाथ जी ने समाधि लेने का निश्चय किया। उन्होंने हरोजी को आदेश दिया कि वे चूड़ीखेड़ा जाकर काळलदे को समाधि की सूचना दे। सती काळलदे एवं उनकी बहन प्यारल दे कतरियासर आई। जहाँ उन्होंने अपनी गाड़ियाँ रोकी और नीचे उतरी वहां सती दादी के पगल्या (पद चिन्ह) की पूजा होती है जो वर्तमान सती दादी मंदिर हैं। सती दादी जब वहां से गोरख मालिया गई तो जसनाथ जी समाधि ले चुके थे। सती दादी द्वारा झोरावा (विरह गीत) गाने पर जसनाथ जी पुनः प्रकट हुए तथा बाद में उन्होंने वहां एक साथ समाधि ली। वह स्थान गोरखमालिया से थोड़ा दक्षिण में था जहाँ वर्तमान में जसनाथजी मंदिर बना है। प्रारंभ में वहां दो समाधि थी लेकिन पालो जी महाराज ने वहां मंदिर बनवाते समय मकराना से एक बड़ी समधी लाकर रखवा दी। वर्तमान में एक ही समाधि पर सती जी की पंवरी एवं जसनाथ जी की भगवी चादर चढ़ाई जाती है। हरोजी द्वारा जसनाथ जी से अपने लिए निर्देश मांगने पर जसनाथ जी ने बताया कि तुम बम्बलू के पूर्व में जाकर तपस्या करो, और उन्हें कुछ चीजें सौंपी। उनसे कहा कि एक दिन किसी में मेरी जोत जगेगी और वो आकर तुम्हारी छोटी ऊँगली (चिटुली) पकड़े तब ये चीजें दे देना। बाद में जसनाथ जी के चाचा राजोजी के बेटे हंसोजी में जसनाथ जी की जोत जगी। तब उनको जसनाथ जी का सामान हरोजी ने सौंपा और स्वयं समाधि ले ली।
FIRE DANCE BY JASNATHI |
श्री जसनाथ जी मठ - सिद्धो का पाँचला |
SHREE JASNATH JI MAHARAJ'S TEMLPE AT Katariyasar.जसनाथ सम्प्रदायजसनाथजी महाराज ने समाधि लेते समय हरोजी को धर्म (सम्प्रदाय) के प्रचार, धर्मपीठ की स्थापना करने की आज्ञा दी. सती कालो की बहन प्यारल देवी को मालासर भेजा. संवत 1551 में जसनाथजी ने चुरू में जसनाथ संप्रदाय की स्थापना कर दी थी. दस वर्ष पश्चात संवत 1561 में लालदेसर गाँव (बीकानेर) के चौधरी रामू सारण ने प्रथम उपदेश लिया. उन्हें 36 धर्मों की आंकड़ी नियमावली सुनाई, चुलू दी और उनके धागा बांधा.इस संप्रदाय में तीन वर्ग हैं - १. सिद्ध २. सेवक ३. साधू संप्रदाय का एक कुलगुरु होता है. सिद्धों की दीक्षा सिद्ध गुरु द्वारा दी जाती है. कुलगुरु का कार्य संप्रदाय को व्यवस्थित रखना है. जसनाथ संप्रदाय में पाँच महंतों की परम्परा है. कतरियासर, बंगालू (चुरू) लिखमादेसर, पुनरासर एवं पांचला(मारवाड़) और बालिलिसर गाँव (बाड़मेर) यानि बीकानेर में चार और बाड़मेर में एक गद्दी है. इन पाँच गद्दियों के बाद 5 धाम, फ़िर 12 धाम, और 84 बाड़ी, 1o8 स्थापनाएँ और शेष भावनाएँ. इस प्रकार इस संप्रदाय का संगठन गाँवों तक फैला है. जसनाथ सिद्धों का प्रारम्भ वाम मार्गी एवं भ्रष्ट तांत्रिकों के विरोध में हुआ था. सामान्य जनता शराब, मांस एवं उन्मुक्त वातावरण की और तेजी से बढ़ रही थी उस समय राजस्थान में जसनाथ संप्रदाय ने इस आंधी को रोका. भोगवादी प्रवृति को रोकने एवं चरित्र निर्माण के उद्देश्य से लोगों को आकर्षित किया और अग्नि नृत्य का प्रचलन कराया. इससे लोग एकत्रित होते थे, प्रभावित होते थे, जसनाथ जी उनको उपदेश देते थे. इस प्रकार उनके सद्विचारों का जनता पर काफ़ी प्रभाव पड़ा. बाद में अग्नि नृत्य इस संप्रदाय का प्रचार मध्यम बन गया. इस संप्रदाय के लोग पुरूष पगड़ी (भगवां रंग) बांधते हैं और स्त्रियाँ छींट का घाघरा पहनती हैं. इनके मुख्य नियम है - प्रतिदिन स्नान के बाद बाड़ी में ज्वार, बाजरा, मोठ आदि दाने पक्षियों को डालना, पशुओं को पानी पिलाना, दस दिन का सूतक पालना, देवी देवताओं की उपासना वर्जित है. मुर्दा को जमीन में गाड़ते हैं. बाड़ी में स्थित कब्रिस्थान में ही मुर्दे गाडे़ जाते हैं और समाधि बनादी जाती है. इनके तीन मुख्य पर्व हैं |- १. जसनाथ जी द्वारा समाधि लेने के दिन यानि जसनाथ जी का निर्वाण पर्व आश्विन शुक्ला सप्तमी को मनाया जाता है. २. माघ शुक्ला सप्तमी को जसनाथ जी के शिष्य हांसूजी में जसनाथ जी को ज्योति प्रकट होने की स्मृति में मनाते हैं. ३. चैत में दो पर्व - चैत्र सुदी चौथ को सती जी का और तीन दिन बाद सप्तमी को जसनाथ जी का पर्व मनाया जाता है. |